सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

वैलेन्‍टाइन डे - प्‍यार प्रदर्शन नहीं इक अहसास

वैलेन्‍टाइन डे का नाम आते ही टीन एजर उछल जाते हैं। उनको जैसे मुंहमांगी मुराद मिल जाती है। इस खास दिन के बहाने वे अपने मन में छिपे प्रेम का इजहार करने का मार्ग तलाशते हैं। प्‍यार के इजहार के नाम पर वे होटलों, रेस्‍टोरेंटों और पार्कों में खुल्‍लम-खुल्‍ला भारतीय संस्‍कृति और पारिवारिक मर्यादाओं को तार-तार करने से गुरेज नहीं करते। उनके द्वारा किये जाने वाले भौड़े प्रदर्शन का वर्तमान में बेहद दुष्‍प्रभाव पड़ रहा है। नतीजतन जो बच्‍चे टीन एज में कदम रखने हैं, उन्‍हें प्‍यार के इस दिखावे के बारे में जानकारियां मिलनी शुरू हो जाती हैं। वे अपनी संस्‍कृति से सीख लेने के बजाय पाश्‍चात्‍य बीमारी को गले लगाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। आलम यह है कि आज स्‍कूल-कालेजों में गणतंत्र दिवस जैसे खास पर्व के बारे में उन्‍हें भले ही समुचित ज्ञान न हो लेकिन वे वैलेन्‍टाइन डे के बारे में बखूबी जानते हैं। अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों से शुरू होने वाली यह बीमारी अब गांवों में भी पहुंचने लगी है। फिल्‍में और टीवी सीरियल इसके लिए उर्वरक का काम कर रहे हैं।
प्‍यार की सरेआम नुमाइश करने वालों को कौन समझाए कि प्रेम प्रदर्शन की चीज नहीं बल्कि इक अहसास है। यह मां-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहन और अन्‍य रिश्‍तों के जरिये आसानी से समझा जा सकता है। प्‍यार के बारे में किसी कवि ने यह रचना सटीक बैठती है- हो जुबां कोई मगर प्‍यार तो बस प्‍यार है, हर जुबां में प्‍यार का अनुवाद होना चाहिए।

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