रविवार, फ़रवरी 28, 2010

आओ दिल से दिल मिलाएं हिन्‍दू-मुस्लिम, सिख, इसाई

आया होली का त्‍योहार लाया रंगों की बौछार, आया होली का त्‍योहार---

संग मिल बैठेंगे चार यार रमू बिरजू, मोलहे, काली

आज खुशी का मौका है भइया हो जाये बोतल खाली

विश्‍वनाथ, करिया और घिसियावन भी ठण्‍डई खूब उडाए

छोट-बड़े सब होलियार बन गये घिस-घिस रंग लगावें

पूड़ी, सोहारी, गुछिया, मालपुआ की जमकर हुई छकाई

रास-रंग की मस्‍ती में कोऊ छोटा न बड़ भाई

अबीर-गुलाल संग गले मिल रहे चाचा, भैया, ताऊ

रंगों के त्‍योहार में सबमें मस्‍ती छायी

यारी का रंग चटख हो गया छोड़ दुश्‍मनी भाई

आओ दिल से दिल मिलाएं हिन्‍दू-मुस्लिम हों या सिख इसाई

आया होली का त्‍योहार लाया रंगों की बौछार

शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

बहुत याद आती है बचपन की होली

बहुत याद आती है बचपन की होली।वे अल्‍हड़पन, हंसी-ठिठोली। रंगों की मस्‍ती और शरारत। कैसे भूलेगी बचपन की होली। ग्रामीण परिवेश में पलने-बढ़ने के कारण गांवों में होने वाले त्‍योहारों के बारे में करीबी जानकारी है। मेरे बचपन में होली का उल्‍लास करीब महीने भर पहले शुरू हो जाता था। नतीजतन मार्च के पहले यानि जनवरी, फरवरी में होनी वाली शादियां और गौने में विदाई के वक्‍त रंग पड़ने लगता था। रिश्‍तेदारियों में जाने से पूर्व लोग मानसिक रूप से होली खेलने को तैयार रहते थे। बसंत पंचमी के दिन रेड़ गड़ने के बाद से होलिका की तैयारी शुरू हो जाती थी। इसी शाम कबीर बोलने का सिलसिला चलता था। इसमें अपने रिश्‍तों के हिसाब से खूब गालियों की बौछार होती थी। कभी-कभार इसको लेकर शिकवा-शिकायतें भी होती थीं लेकिन गांव के मानिन्‍द और बुजर्गु त्‍योहार का वास्‍ता देकर बात आगे बढ़ने के बजाय पटाक्षेप कर देते थे। होली के पखवारे भर पूर्व गांवों में कनई फेंकने (गीली मिटटी ) का चलन था। पड़ोसी गांवों से इस बात को लेकर होड़ लग जाती थी कि इस बार किसकी होलिका कितनी ऊंची होगी और ज्‍यादा देर तक किसकी होलिका जलेगी। इसी के मददेनजर होलिका दहन की पूर्व संध्‍या पर युवा टोली गांव में घर-घर घूमकर लकडी और उपले इकटठा करती थी। इसके बाद भी कसर दिखने पर देर शाम शुरू होता था लकड़ी चुराने और खेतों में रखे छप्‍पर उठाने का सिलसिला। नलकूपों पर छांव के लिए रखे जिन छप्‍परों की रखवाली नहीं होती थी वह तो रात में गायब हो जाता था। कभी-कभी इसकी भरपाई भी युवकों के परिवारीजनों को करनी पड़ती थी। गांवों में आज के डेढ़-दो दशक पूर्व एका और भाईचारा की इससे बढि़या मिसाल कुछ हो ही नहीं सकता। आज का दौर होता तो गांवों के कितने युवकों के विरुद्ध आगजनी और चोरी का मुकदमा कायम हो जाता। होली के दिन तो कुछ कहना ही नहीं था। सुबह से की बच्‍चों की टोली रंग लेकर घर-घर धावा बोलने लगती। चाची, काकी, बुआ और भाभी होलियारों के निशाने पर होतीं। रंग डालने के चक्‍कर में कितनों के पकवान खराब हो जाते और कितनों के घरों के कीमती सामान लेकिन होली के नाम पर हर शरारत अनदेखी हो जाती। दूसरी बेला यानि शाम के समय अबीर लगाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। इस दौरान लोग उनके घरों पर भी जाने से गुरेज नहीं करते जिनसे खान-पान और बोली-बानी बंद रहता था। मतलब सारे रंज भुलाकर गले मिलने में कोई दिक्‍कत नहीं होती थी। यह सिलसिला गांवों से दूसरे गांवों और क्षेत्रों तक जारी रहता था। वहीं एक स्‍थल पर बैठकर गंवई टीम फाग और गीत-संगीत से माहौल को और भी रंगीन बना देती थी। गांवों में प्रजा को पकवान और बख्‍शीश देने का चलन भी है जो अब भी बरकरार है। आज की होली पर तमाम प्रतिबंधों की मार है। एक तो महंगाई जेब ढीली कर रही है तो दूसरी ओर बढ़ती कटुता के कारण सगे-सम्‍बन्‍धी भी अपनों से मिलने से कतराते हैं। बच्‍चों की जरा सी शरारत उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकती है। इसलिए गांवों में त्‍योहारों का रंग अब फीका पड़ने लगा है। रिश्‍तों पर सियासत भारी पड़ रही है। दांव-पेंच के चक्‍कर में सब कुछ उलटा-पुलटा हो गया है।

शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

कितना पीछे है हमारा सुरक्षा तंत्र

39 घण्‍टें की कोशिशों के बाद शमीम तो पुलिस की गिरफ़त में आ गया लेकिन इस दौरान जो कुछ हुआ और दिखा उससे एक बात तो साफ है कि हमारा सुरक्षा तंत्र कितना पीछे है। ऐसे में आतंकी घ्टनाओं को रोकने के दावे और उनसे मुकाबले की बात करना भी बेमानी होगी। दुनाली बंदूक और चंद कारतूसों के दम पर प्रदेश् की राजधानी लखनऊ में पुलिस को सिर के बल खड़ा रहने को शमीम ने विवश कर दिया। इस घटना में पुलिसजनों का धैर्य और उनकी कार्रवाई वाकई काबिले तारीफ है लेकिन नौसिखिए और अप्रशिक्षित युवक के विरुद्व आपरेशन में इतना वक्‍त लगना गंभीर चिंतनीय है। सुरक्षा एजेंसियों को इस बारे में चिंतन करना चाहिए। इसकी समीक्षा शासन स्‍तर पर भी होना जरूरी है। सुरक्षा व्‍यवस्‍था को लेकर जिस तरह की संजीदगी होनी चाहिए वह वास्‍तव में नहीं है। हर जिले में नहीं लेकिन राजधानी और मण्‍डल मुख्‍यालयों पर ऐसा सुरक्षा दस्‍ता होना चाहिए जो चंद पलों में किसी भी हालात से निपटने में दक्ष हो। उसे कमाण्‍डों स्‍तर का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। प्रदेश्‍ा सरकार को चाहिए कि वह जिला मुख्‍यालयों पर भी त्‍वरित कार्रवाई के लिए क्‍यूआरटी का गठन करे जिसमें ऐसे पुलिसकर्मी रखे जाएं जो वाकई में जांबाज हों और उन्‍हें साधन संसाधन भी मुहैया कराया जाना चाहिए। अयोध्‍या, मथुरा, काशी और ताजमहल जैसे अति महत्‍वपूर्ण स्‍थलों की सुरक्षा के लिए किसी भी हालात से निपटने के लिए कमाण्‍डों दस्‍ता तैनात कियख जाना भी जरूरी है। जिस तरह से खुफियख सूचनाएं आ रही हैं, ऐसे में समय में यह बहुत ही आवश्‍यक है। यह बात शासन के उच्‍चाधिकारियों व खुद सीएम को समझना होगा।

सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

वैलेन्‍टाइन डे - प्‍यार प्रदर्शन नहीं इक अहसास

वैलेन्‍टाइन डे का नाम आते ही टीन एजर उछल जाते हैं। उनको जैसे मुंहमांगी मुराद मिल जाती है। इस खास दिन के बहाने वे अपने मन में छिपे प्रेम का इजहार करने का मार्ग तलाशते हैं। प्‍यार के इजहार के नाम पर वे होटलों, रेस्‍टोरेंटों और पार्कों में खुल्‍लम-खुल्‍ला भारतीय संस्‍कृति और पारिवारिक मर्यादाओं को तार-तार करने से गुरेज नहीं करते। उनके द्वारा किये जाने वाले भौड़े प्रदर्शन का वर्तमान में बेहद दुष्‍प्रभाव पड़ रहा है। नतीजतन जो बच्‍चे टीन एज में कदम रखने हैं, उन्‍हें प्‍यार के इस दिखावे के बारे में जानकारियां मिलनी शुरू हो जाती हैं। वे अपनी संस्‍कृति से सीख लेने के बजाय पाश्‍चात्‍य बीमारी को गले लगाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। आलम यह है कि आज स्‍कूल-कालेजों में गणतंत्र दिवस जैसे खास पर्व के बारे में उन्‍हें भले ही समुचित ज्ञान न हो लेकिन वे वैलेन्‍टाइन डे के बारे में बखूबी जानते हैं। अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों से शुरू होने वाली यह बीमारी अब गांवों में भी पहुंचने लगी है। फिल्‍में और टीवी सीरियल इसके लिए उर्वरक का काम कर रहे हैं।
प्‍यार की सरेआम नुमाइश करने वालों को कौन समझाए कि प्रेम प्रदर्शन की चीज नहीं बल्कि इक अहसास है। यह मां-बेटे, पिता-पुत्र, भाई-बहन और अन्‍य रिश्‍तों के जरिये आसानी से समझा जा सकता है। प्‍यार के बारे में किसी कवि ने यह रचना सटीक बैठती है- हो जुबां कोई मगर प्‍यार तो बस प्‍यार है, हर जुबां में प्‍यार का अनुवाद होना चाहिए।

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

आखिर कैसे जियेगा गरीब

गरीबों की सु‍विधा और गरीबी दूर करने के लिए वैसे केन्‍द्र व प्रदेश की सरकारें तमाम तरह की कोशिशें करने का दावा करती हैं लेकिन वे हकीकत में गरीबों के लिए कितनी हद तक फिक्रमंद हैं इसका अंदाजा वर्तमान दिनों में दाल और रोटी की कीमतों से लगाया जा सकता है। असल में कालाबाजारी और जमाखोरी तथा मिलावटखोरी पर लगाम कसने में सरकारें पूरी तरह नाकाम हैं। उनके आदेशों-निर्देशों की सरकारी मुलाजिम खुद ही हवा निकालने में पीछे नहीं है। ऐसे में गरीबों के लिए दाल-रोटी का जुगाड़ स्‍वप्‍न बनता जा रहा है।
जरा गौर करें इन दिनों खुले बाजार में दाल 80 से 90 रुपये प्रति किलोग्राम है। अरहर की दाल न मिलने की दशा में गरीब चना, मटर कि दाल से काम चलाता था लेकिन उसकी कीमतें भी 50 रुपये के आसपास हैं। इसी तरह चीनी भी 46 से 48 रुपये प्रति किलो की दर से बक रही है। आटा 10 से 12 रुपये किलो के हिसाब से बिक रहा है और चावल की बिक्री 15 रुपये से लेकर 20 रुपये के बीच की जा रही है। दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के कारण दिहाड़ी मजदूरी पर कार्य करने वाले मजदूर अथवा दस हजार रुपये से कम पगार पाने वाले कर्मचारियों का जीवन संकटमय हो गया है। साधारण होटलों में रोटी 3 रुपये लेकर 6 रुपये की कीमत पर बेची जा रही है जबकि फुल प्‍लेट चावल की कीमत 50 रुपये तक पहुंच चुकी है।
आसमान की तरफ उछाल मारती महंगाई में कोटे का राशन गरीबों को राहत दे सकता था लेकिन इस पर सयाने लोगों का कब्‍जा हो चुका है। दुकानदान 30 प्रतिशत खाद्यान्‍न वितरित करता है और 70 फीसदी कालाबाजारियों के हाथ बेच देता है। इस गोरखधंधे में ग्राम पंचायत अधिकारी, पंचायत प्रतिनिधि, बीडीओ, पूर्ति निरीक्षक, विपणन निरीक्षक एसडीएम और डीएसओ तक शामिल हैं। इन लोगों का दुकानदारों से माहवारी हिस्‍सा फिक्‍स है जो गरीबों का हक मारकर दुकानदार पहुंचाते हैं। लकड़ी महंगी हो गई है और रसोई गैस ब्‍लैक मर्केटिंग में बिक रहा है। किरोसिन को मिलावटखोरों ने लूट रखा है और गरीबों को सस्‍ते दर पर बिजली देने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है, ऐसे में गरीब कहां जाय, क्‍या करे उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा। इससे इतर सरकार फिर डीजल, पेटोल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ा रही है। सरकार का यह कदम गरीबों की पीड़ा को और बढ़ा देगा। सरकार के मंत्रियों का यह बयान और भी सालता है कि महंगाई अभी और बढ़ंगी। उन्‍हें कौन बताये कि देश का गरीब किन हालातों का सामना कर रहा है। या तो गरीबी के बारे में जानते नहीं या जानने की कोशिश नहीं करते। उन्‍हें तो गरीबों के वोट बैंक के जरिये अपनी रोटी सेंकने की जो आदत पड़ चुकी है।