प्रदेश में ठंड का प्रकोप जारी है। हर जिले से रोजाना मौतों की खबरें आ रही हैं। मौत का क्या भरोसा, कब आ जाए लेकिन ऐसी मौत जो किसी प्राकृतिक प्रकोप के कारण हो उससे बचाव के उपाय तो कम से कम किए जा सकते हैं। शायद इसी मकसद से गरीबों को कंबल बांटने व अलाव जलाने की व्यवस्था है। किसी भी कल्याणकारी राज्य में इस व्यवस्था की कल्पना की जाती है लेकिन वर्तमान सरकार में शायद यह व्यवस्था गौण है। नतीजतन ठंड से बचाव के माकूल प्रबंध नहीं किए जाने से गरीब लगातार मर रहे हैं। उनके पास भोजन तक की व्यवस्था नहीं है। सरकार में शामिल जनप्रतिनिधियों या अधिकारियों के पास आम जनता की इस समस्या के निराकरण के लिए समय तक नहीं है। उनकी आवाज सिर्फ मीडिया की सुर्खियों में छायी रहती है। इस कारण अकेले फैजाबाद जिले में दो दर्जन लोगों की मौत ठंड के कारण हो चुकी है। वहीं दूसरी ओर प्रदेश की मुखिया मायावती के जन्मोत्सव को लेकर सत्तादल के नेता हों या अधिकारी पूरे प्राणपण से जुटे हैं। गरीबों की झोपड़ी तक पहुंचने के लिए उनके पास समय नहीं है लेकिन शहर की गलियों से लेकर चौराहे तक नीली रोशनी से जगमगा रहे हैं। शायद यह पहला मौका है जब अघोषित रूप से ही सही पर सरकारी मशीनरी अंदरखाने बहन जी का जन्मदिन मनाने के लिए उत्सुक नजर आ रही है। रैली और सियासी शो के नाम पर लाखों रुपए के वारे-न्यारे किए जा रहे हैं। वहीं पुलिस और परिवहन विभाग का अमला वाहनों के प्रबंध्ा में तल्लीन है। जश्न के इस मौके पर भला किसकी मजाल जो गरीबों की लाचारी और उनकी असमय मौतों के बारे में आवाज उठा सके।
रविवार, जनवरी 23, 2011
हर जुबां पर शीलू और शीला
शीलू और शीला जाने-अनजाने हर किसी की जुबान पर है। बांदा जिले की नाबालिग बालिका जहां सत्ता के गलियारे में हवश का शिकार बनी वहीं शीला की जवानी जैसे फूहड़ गाने से एक बार फिर हिंदी सिनेमा में पटकथा के बजाए आइटम सांग के बढ़ते प्रचलन का खुलासा हुआ। शीलूकांड की रोशनी में जाने से पता चलता है कि एक गरीब परिवार की लड़की किस तरह वासना और साजिशों का शिकार हुई। उसकी मदद का भरोसा देकर जहां बसपा विधायक और उसके गुर्गे दुराचार करते रहे। वहीं हकीकत पर पर्दा डालने के लिए उसे चोरी जैसी फर्जी घटना में जेल भेजवाकर लीपापोती का प्रयास किया गया। इस कृत्य में जितना दोषी विधायक व उसके गुर्गे हैं उससे कहीं ज्यादा सरकारी सिस्टम और उस पर हावी पोलैटिकल प्रेशर है। यह घटना इस बात का द्योतक है कि किस तरह सत्तादल के नेताओं को खुश करने के लिए नौकरशाह उनके एजेंट बन जाते हैं। सत्ता की बदौलत हैवानियत का यह कोई अकेला मामला नहीं है। इससे पूर्व कवियत्री मधुमिता, शशि और कविता राजनीतिक गलियारों में दरिंदगी का शिकार हो चुकी हैं। मामला मीडिया और विपक्षी दलों द्वारा तूल नहीं पकड़ाया गया होता तो शायत शीलू कांड का मुख्य अभियुक्त विधायक पर कार्रवाई नहीं होती। यह बात दीगर है कि ताजा घटना को लेकर आवाज उठाने वाले सपा, भाजपा व कांग्रेस नेताओं को उन घटनाओं की याद भी करनी चाहिए जो उनके शासनकाल हुईं थीं। यदि उनकी वर्तमान सोच भविष्य में भी टिकी रही तो शायद शासन-सत्ता में आने के बाद भी वह पीडि़तों को न्याय दिलाने में तनिक संकोच नहीं करेंगे, आरोपी चाहे उनके ही दल का ही क्यों न हो। हालांकि अमूमन ऐसा होता नहीं है। बांदाकांड के बाद दूसरा सबसे चर्चित मामला शीला की जवानी का है। यह गाना बच्चों, युवाओं की जुबान पर आम है। ऐसे में उन लड़कियो की आफत आ गई जिनके मां-बाप ने उनका नाम शीला रख दिया था। घर से निकलते ही गली के शोहदे हों या स्कूल-कालेज में सड़क छाप मजनू। सभी गाने की इसी लाइन के जरिए शीलाओं की लज्जाभंग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। सरकारों और फिल्म सेंसर बोर्ड को ऐसे गानों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए जिससे किसी नाम विशेष की महिला को अपमानित न होना पड़े।
गणतंत्र बनाम गनतंत्र
देश की आजादी को छह दशक बीत चुके हैं। धीरे-धीरे लोकतंत्र प्रौढ़ हो रहा है। ऐसे में लोकतंत्र में सियासी फसल काटने को बेताब स्वार्थी लोगों के बीच गनतंत्र का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। मंत्री, सांसद, विधायक और अन्य जनप्रतिनिधि इस नए तंत्र के बिना शायद खुद को अधूरा समझते हैं। इसी कारण सरकारी से लेकर निजी स्तर पर उनके कुनबे में गन वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसे में गणतंत्र की स्थापना की वर्षगांठ पर जश्न के क्या मायने हैं, इसे भी सोचना होगा। राशन की दुकानों से लेकर विकास कार्यों के टेंडरों लेने तक सब जगह गनतंत्र का ही बोलबाला नजर आ रहा है। गरीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, दबंग और बाहुबली ही उन पर राज करते नजर आ रहे हैं। छोटे व कमजोर लोगों की तब तक सुनवाई नहीं होती जब तक वह कानून को हाथ में लेने की स्थिति में नहीं आ जाते। इन हालातों में 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर मनाने की परंपरा महज दिखावा बनती जा रही है। इन कार्यक्रमों में नेता हों या अफसर सभी सत्य, अहिंसा और ईमानदारी के लिए लंबे-लंबे भाषण देने से गुरेज नहीं करते। लेकिन उनकी यह नसीहत महज कार्यक्रम तक ही सीमित रह जाती है। अगले ही दिन जब वह अपने कार्यालय में होते हैं तो सुर, लय और ताल सब दूसरे हो जाते हैं। भ्रष्टाचार के बारे में घंटों बयानबाजी करने वाले नौकरशाहों या जनप्रतिनिधियों से उनकी ईमानदारी के बारे में पूछा जाए तो शायद कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। इतना ही नहीं यदि मीडिया उनकी बेईमानी की राह में रोड़ा न बन जाए तो देश के महत्वपूर्ण संस्थान और ऐतिहासिक इमारतें भी वह अपने नाम करा लें। लूट-खसोट और मार-काट का उनका सिलसिला शायद अंतहीन हो जाए। ऐसे में अनगिनत दिव्या और शीलू दरिंदगी का शिकार हो सकती हैं। अब जबकि हम गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं ऐसे में आडंबर और दूसरों को नसीहत देने की बजाए खुद के बारे में सोचें। यदि हम स्वयं ईमानदार हो जाएं तो दो-चार लोगों को इस राह पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। यदि वह सीधे रास्ते से बात नहीं मान रहे तो जनसूचना अधिकार कानून को हथियार बनाकर उनके विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया जा सकता है। आज चुनौतियां ढ़ेर सारी हैं। कहीं आतंकवाद तो कहीं अलगाववाद रोकने की चुनौती है। भुखमरी के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं से निबटने की चुनौती लेकिन यदि हम वाकई लोकतंत्र और गणतंत्र में विश्वास करते हैं तो खुद को बुराइयों से बचाना होगा, एक-दूसरे की मदद को हाथ बढ़ाना होगा। तभी वीर शहीदों का सपना पूरा होगा और भारत एक खुशहाल राष्ट बन सकेगा। इतना ही नहीं जनप्रतिनिधियों के चयन में भी सावधानी बरतने की जरूरत है। ऐसे लोगों का तिरस्कार होना चाहिए जो समूची व्यवस्था के लिए नासूर बन चुके हैं। अपराधियों और दबंग छवि के लोगों को सबक सिखाना होगा तभी गरीबों, वंचितों व जरूरतमंदों को उनका हक मिल सकेगा। आरक्षण देने के बजाए व्यवस्था में सुधार की जरूरत है जिसमें देश का युवा महती भूमिका निभा सकता है।
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