रविवार, मार्च 04, 2012

Story

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आया होली का त्‍योहार ...

आया होली का त्‍योहार लाया खुशियों की बौछार, आया होली का त्‍योहार
संग मिल बैठेंगे चार यार रामू बिरजू, मोलहे, काली
आज खुशी का मौका है भइया हो जाये बोतल खाली
विश्‍वनाथ, करिया और घिसियावन भी ठण्‍डई खूब उडाए
छोट-बड़े सब होलियार बन गये घिस-घिस रंग लगावें
पूड़ी, सोहारी, गुछिया, मालपुआ की जमकर हुई छकाई
 रास-रंग की मस्‍ती में कोऊ छोटा न बड़ भाई
 अबीर-गुलाल संग गले मिल रहे चाचा, भैया, ताऊ
रंगों के त्‍योहार में सबमें मस्‍ती छायी
यारी का रंग चटख हो गया छोड़ दुश्‍मनी भाई
आओ दिल से दिल मिलाएं हिन्‍दू-मुस्लिम हों या सिख इसाई
आया होली का त्‍योहार लाया रंगों की बौछार

गुरुवार, जनवरी 05, 2012

पांच रुपये में लड़ गए चुनाव


 धनबल व बाहुबल से बोझिल इस दौर की चुनावी प्रक्रिया वाले माहौल को देखते हुए शायद ही लोग यकीन करें कि महज पांच रुपये की पूंजी से श्रीराम द्विवेदी विधानसभा का चुनाव लड़े थे। तकनीकी कारणों से वह मात्र 213 मतों से पराजित हुए थे। मौजूदा दौर में पग-पग बदलती दलीय निष्ठा व व्यक्तिपरक मोह के बढ़ते चलन को देखने वाले शायद इस बात पर भी यकीन न करें कि दलगत निष्ठा से उपजे वैचारिक जुनून वाले बमुश्किल दो दर्जन कार्यकर्ताओं के बूते शहरी क्षेत्र को समाहित किए अयोध्या विधानसभा क्षेत्र में चुनाव का शंखनाद करने वाले श्रीराम द्विवेदी का कारवां वास्तविक रूप से फतह हासिल करने वाला साबित हुआ। बात 1974 में हुए विधानसभा के आम चुनाव की है। तत्समय भारतीय क्रांति दल, मुस्लिम मजलिस व संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर भारतीय लोकदल का गठन हुआ था। श्रीराम द्विवेदी संसोपा घटक के राजनीतिक सिपाही थे। इसके तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनारायण की दखल पर श्रीराम द्विवेदी को अयोध्या विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी घोषित किया गया था। उस समय जयशंकर पांडेय, माताप्रसाद तिवारी, गंगाप्रसाद पांडेय, राममूर्ति सिंह आदि युवा कार्यकर्ताओं तथा संरक्षकों में शुमार वीरेश्र्वर द्विवेदी, चौधरी सिब्ते मोहम्मद नकवी, रमानाथ मेहरोत्रा, बाबू त्रिलोकीनाथ श्रीवास्तव आदि की सरपरस्ती में चुनावी मुहिम का आगाज हुआ तो श्रीराम द्विवेदी के पास मात्र पांच रुपये थे। समाजवादी कार्यकर्ताओं की वैचारिक निष्ठा व समर्पण भरी चारित्रिक कार्यशैली से प्रभावित न केवल आम लोग बल्कि विभिन्न वर्ग के बुद्धिजीवियों का रुझान भी समाजवादी योद्धा श्रीराम द्विवेदी के प्रति आकृष्ट हुआ था। नतीजतन व्यावहारिक रूप से चुनावी फतह की मंजिल पर पहुंचकर भी तकनीकी कारणों से मात्र 213 वोटों से द्विवेदी चुनाव हार गए थे।

गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

अमर शहीद अशफाक उल्ला खां की यादें ताले में बंद

फैजाबाद, महान क्रांतिकारी अमर शहीद अशफाक उल्ला खां की यादें सहेजने वाला स्मारक वर्ष पर्यंत ताले में बंद रहता है। इसके लिए मंडल कारागार की सुरक्षा का वास्ता दिया जाता है। ऐसे में सालभर में मात्र एक दिन 19 दिसंबर (शहीद दिवस) को ही आम जन इस शहीद स्थल का नजदीक से दीदार कर पाता है, बाकी दिन यह उपेक्षित ही रहता है।
लखनऊ जिले के काकोरी में नौ अगस्त 1925 को ट्रेन से जा रहा ब्रितानिया हुकूमत का खजाना लूटने की घटना हुई थी। इसमें पं.राम प्रसाद बिस्मिल के साथ अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेंद्र लाहिड़ी समेत आठ लोग शामिल थे। गिरफ्तारी होने पर इन्हें जेल में शारीरिक यातनाएं दी गई। साथ ही फासी की सजा भी सुनाई गई। इसी क्रम में अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद, राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, रोशन सिंह को इलाहाबाद व राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी। अमर शहीद अशफाक की यादें ताजा करने के लिए मंडल कारागार परिसर में उस स्थल को शहीद स्थल घोषित किया गया है जहां उन्हें फांसी दी गई थी। यहां हर साल शहीद दिवस पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद जेल प्रशासन की मदद से कार्यक्रम आयोजित करता रहा है इस बार इस पर भी ग्रहण लग गया !

रविवार, जनवरी 23, 2011

गरीबों की मौत, पर माया राज में जश्‍न

प्रदेश में ठंड का प्रकोप जारी है। हर जिले से रोजाना मौतों की खबरें आ रही हैं। मौत का क्‍या भरोसा, कब आ जाए लेकिन ऐसी मौत जो किसी प्राकृतिक प्रकोप के कारण हो उससे बचाव के उपाय तो कम से कम किए जा सकते हैं। शायद इसी मकसद से गरीबों को कंबल बांटने व अलाव जलाने की व्‍यवस्‍था है। किसी भी कल्‍याणकारी राज्‍य में इस व्‍यवस्‍था की कल्‍पना की जाती है लेकिन वर्तमान सरकार में शायद यह व्‍यवस्‍था गौण है। नतीजतन ठंड से बचाव के माकूल प्रबंध नहीं किए जाने से गरीब लगातार मर रहे हैं। उनके पास भोजन तक की व्‍यवस्‍था नहीं है। सरकार में शामिल जनप्रतिनिधियों या अधिकारियों के पास आम जनता की इस समस्‍या के निराकरण के लिए समय तक नहीं है। उनकी आवाज सिर्फ मीडिया की सुर्खियों में छायी रहती है। इस कारण अकेले फैजाबाद जिले में दो दर्जन लोगों की मौत ठंड के कारण हो चुकी  है। वहीं दूसरी ओर प्रदेश की मुखिया मायावती के जन्‍मोत्‍सव को लेकर सत्‍तादल के नेता हों या अधिकारी पूरे प्राणपण से जुटे हैं। गरीबों की झोपड़ी तक पहुंचने के लिए उनके पास समय नहीं है लेकिन शहर की गलियों से लेकर चौराहे तक नीली रोशनी से जगमगा रहे हैं। शायद यह पहला मौका है जब अघोषित रूप से ही सही पर सरकारी मशीनरी अंदरखाने बहन जी का जन्‍मदिन मनाने के लिए उत्‍सुक नजर आ रही है। रैली और सियासी शो के नाम पर लाखों रुपए के वारे-न्‍यारे किए जा रहे हैं। वहीं पुलिस और परिवहन विभाग का अमला वाहनों के प्रबंध्‍ा में तल्‍लीन है। जश्‍न के इस मौके पर भला किसकी मजाल जो गरीबों की लाचारी और उनकी असमय मौतों के बारे में आवाज उठा सके।

हर जुबां पर शीलू और शीला

शीलू और शीला जाने-अनजाने हर किसी की जुबान पर है। बांदा जिले की नाबालिग बालिका जहां सत्‍ता के गलियारे में हवश का शिकार बनी वहीं शीला की जवानी जैसे फूहड़ गाने से एक बार फिर हिंदी सिनेमा में पटकथा के बजाए आइटम सांग के बढ़ते प्रचलन का खुलासा हुआ। शीलूकांड की रोशनी में जाने से पता चलता है कि एक गरीब परिवार की लड़की किस तरह वासना और साजिशों का शिकार हुई। उसकी मदद का भरोसा देकर जहां बसपा विधायक और उसके गुर्गे दुराचार करते रहे। वहीं हकीकत पर पर्दा डालने के लिए उसे चोरी जैसी फर्जी घटना में जेल भेजवाकर लीपापोती का प्रयास किया गया। इस कृत्‍य में जितना दोषी विधायक व उसके गुर्गे हैं उससे कहीं ज्‍यादा सरकारी सिस्‍टम और उस पर हावी पोलैटिकल प्रेशर है। यह घटना इस बात का द्योतक है कि किस तरह सत्‍तादल के नेताओं को खुश करने के लिए नौकरशाह उनके एजेंट बन जाते हैं। सत्‍ता की बदौलत हैवानियत का यह कोई अकेला मामला नहीं है। इससे पूर्व कवियत्री मधुमिता, शशि और कविता राजनीतिक गलियारों में दरिंदगी का शिकार हो चुकी हैं। मामला मीडिया और विपक्षी दलों द्वारा तूल नहीं पकड़ाया गया होता तो शायत शीलू कांड का मुख्‍य अभियुक्‍त विधायक पर कार्रवाई नहीं होती। यह बात दीगर है कि ताजा घटना को लेकर आवाज उठाने वाले सपा, भाजपा व कांग्रेस नेताओं को उन घटनाओं की याद भी करनी चाहिए जो उनके शासनकाल हुईं थीं। यदि उनकी वर्तमान सोच भविष्‍य में भी टिकी रही तो शायद शासन-सत्‍ता में आने के बाद भी वह पीडि़तों को न्‍याय दिलाने में तनिक संकोच नहीं करेंगे, आरोपी चाहे उनके ही दल का ही क्‍यों न हो। हालांकि अमूमन ऐसा होता नहीं है। बांदाकांड के बाद दूसरा सबसे चर्चित मामला शीला की जवानी का है। यह गाना बच्‍चों, युवाओं की जुबान पर आम है। ऐसे में उन लड़कियो की आफत आ गई जिनके मां-बाप ने उनका नाम शीला रख दिया था। घर से निकलते ही गली के शोहदे हों या स्‍कूल-कालेज में सड़क छाप मजनू। सभी गाने की इसी लाइन के जरिए शीलाओं की लज्‍जाभंग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। सरकारों और फिल्‍म सेंसर बोर्ड को ऐसे गानों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए जिससे किसी नाम विशेष की महिला को अपमानित न होना पड़े।

गणतंत्र बनाम गनतंत्र

देश की आजादी को छह दशक बीत चुके हैं। धीरे-धीरे लोकतंत्र प्रौढ़ हो रहा है। ऐसे में लोकतंत्र में सियासी फसल काटने को बेताब स्‍वार्थी लोगों के बीच गनतंत्र का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। मंत्री, सांसद, विधायक और अन्‍य जनप्रतिनिधि इस नए तंत्र के बिना शायद खुद को अधूरा समझते हैं। इसी कारण सरकारी से लेकर निजी स्‍तर पर उनके कुनबे में गन वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसे में गणतंत्र की स्‍थापना की वर्षगांठ पर जश्‍न के क्‍या मायने हैं, इसे भी सोचना होगा। राशन की दुकानों से लेकर विकास कार्यों के टेंडरों लेने तक  सब जगह गनतंत्र का ही बोलबाला नजर आ रहा है। गरीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, दबंग और बाहुबली ही उन पर राज करते नजर आ रहे हैं। छोटे व कमजोर लोगों की तब तक सुनवाई नहीं होती जब तक वह कानून को हाथ में लेने की स्थिति में नहीं आ जाते। इन हालातों में 26 जनवरी, 15 अगस्‍त और 2 अक्‍टूबर मनाने की परंपरा महज दिखावा बनती जा रही है। इन कार्यक्रमों में नेता हों या अफसर सभी सत्‍य, अहिंसा और ईमानदारी के लिए लंबे-लंबे भाषण देने से गुरेज नहीं करते। लेकिन उनकी यह नसीहत महज कार्यक्रम तक ही सीमित रह जाती है। अगले ही दिन जब वह अपने कार्यालय में होते हैं तो सुर, लय और ताल सब दूसरे हो जाते हैं। भ्रष्‍टाचार के बारे में घंटों बयानबाजी करने वाले नौकरशाहों या जनप्रतिनिधियों से उनकी ईमानदारी के बारे में पूछा जाए तो शायद कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। इतना ही नहीं यदि मीडिया उनकी बेईमानी की राह में रोड़ा न बन जाए तो देश के महत्‍वपूर्ण संस्‍थान और ऐतिहासिक इमारतें भी वह अपने नाम करा लें। लूट-खसोट और मार-काट का उनका सिलसिला शायद अंतहीन हो जाए। ऐसे में अनगिनत दिव्‍या और शीलू दरिंदगी का शिकार हो सकती हैं। अब जबकि हम गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं ऐसे में आडंबर और दूसरों को नसीहत देने की बजाए खुद के बारे में सोचें। यदि हम स्‍वयं ईमानदार हो जाएं तो दो-चार लोगों को इस राह पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। यदि वह सीधे रास्‍ते से बात नहीं मान रहे तो जनसूचना अधिकार कानून को हथियार  बनाकर उनके विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया जा सकता है। आज चुनौतियां ढ़ेर सारी हैं। कहीं आतंकवाद तो कहीं अलगाववाद रोकने की चुनौती  है। भुखमरी के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं से निबटने की चुनौती लेकिन यदि हम वाकई लोकतंत्र और गणतंत्र में विश्‍वास करते हैं तो खुद को बुराइयों से बचाना होगा, एक-दूसरे की मदद को हाथ बढ़ाना होगा। तभी वीर शहीदों का सपना पूरा होगा और भारत एक खुशहाल राष्‍ट बन सकेगा। इतना ही नहीं जनप्रतिनिधियों के चयन में भी सावधानी बरतने की जरूरत है। ऐसे लोगों का तिरस्‍कार होना चाहिए जो समूची व्‍यवस्‍था के लिए नासूर बन चुके हैं। अपराधियों और दबंग छवि के लोगों को सबक सिखाना होगा तभी गरीबों, वंचितों व जरूरतमंदों को उनका हक मिल सकेगा। आरक्षण देने के बजाए व्‍यवस्‍था में सुधार की जरूरत है जिसमें देश का युवा महती भूमिका निभा सकता है।

शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

पर्यटन के नक्‍शे पर नहीं आ सकी अयोध्‍या

अयोध्या, प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली होने के साथ ही सिख, जैन व मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए भी धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जानी वाली अयोध्या पर्यटन के लिहाज से पूरी तरह बंजर है। इस धर्मनगरी तक पहुंचने के लिए न तो सड़क व रेल परिवहन की माकूल व्यवस्था है और न ही ठहरने के लिए अच्छे होटल और गेस्टहाउस। मनोरंजन की सुविधाएं तो पूरी तरह बेमानी हैं। ऐसे में विभिन्न धर्मो के पवित्र स्थल और कलकल करती पतित पावनी सरयू की जलधारा ही यहां आने वाले लोगों के आकर्षण का केंद्र है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि बस पुण्य लाभ ही लोगों को यहां खींच लाता है।
अयोध्या से परिवहन सेवाओं की बात करें तो मथुरा, काशी और संगम से सीधे आवागमन के लिए ट्रेनों की सीधी सुविधा नहीं है। इस नगरी के नाम पर राजनीतिक दलों ने भले ही रोटियां सेंकी पर एक अदद ट्रेन अयोध्या के नाम पर नहीं चल सकी। वहीं सड़क परिवहन के नाम पर धर्मनगरी में अन्तरराज्यीय बस अड्डा तक स्थापित नहीं हो सका। ऐसे में अयोध्या पहुंचने को निजी वाहनों अथवा प्राइवेट टैक्सी वाहनों का ही सहारा है। अयोध्या आने वाले पर्यटकों के ठहरने के लिए अच्छे होटलों का अभाव है। यहां पर्यटन विभाग की ओर से होटल साकेत तो वर्षो पहले स्थापित किया गया पर वह इन दिनों बदहाली की भंवर में है। इस होटल में भी आधुनिक सुख-सुविधाओं का अभाव है। इस कारण पर्यटक उसमें जाने से कतराते हैं। मनोरंजन अथवा घूमने-फिरने के लिए धर्मनगरी में सुविधाओं का अकाल है। यहां राजघाट पार्क और चौधरी चरण सिंह घाट ही ऐसे स्थल हैं जहां कुछ देर तक बैठा जा सकता है। बदइंतजामी के कारण ये स्थल भी अपना आकर्षण खो रहे हैं। इतना ही नहीं सुरक्षा के नाम पर दिन-ब-दिन बढ़ रही सख्ती के कारण पर्यटकों का अयोध्या के प्रति मोह और भी भंग होता जा रहा है। माल, रेस्तरां और मनोरंजन के साधनों का अभाव भी उन्हें अयोध्या से विमुख कर रहा है। शायद यही कारण है कि अयोध्या आने वाले पर्यटकों की तादाद में इजाफा नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2006 में यहां कुल 61693 देशी व 416 विदेशी पर्यटकों की आमद दर्ज है। वर्ष 2007 में यह संख्या 70145 व 558 रही जबकि 2008 में 60614 देशी व 1228 विदेशी पर्यटक आये। वर्ष 2009-10 का आंकड़ा नहीं मिल सका। क्षेत्रीय पर्यटन अधिकारी राजेन्द्र कुमार रावत ने स्वीकार किया कि अयोध्या में लोग धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से आते हैं जिनके लिए यहां कई प्रमुख स्थल हैं।
अधूरे ही रहे ये ख्वाब
अंतर्राष्ट्रीय रामकथा संकुल- 12 सौ करोड़ की इस परियोजना में रामकथा के विविध प्रसंगों पर आधारित दृश्यों सहित पार्क, संग्रहालय, आर्ट गैलरी, प्रशासनिक भवन, आडोटोरियम, ओपेन एअर थिएटर, फाइव स्टार होटल का निर्माण प्रस्तावित है। इसके लिए करीब 45 एकड़ भूमि की जरूरत है जिसे पांच साल भी प्रशासन खोज नहीं सका।
शिल्पग्राम- चार करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना का शुभारंभ प्रदेश की मुख्यमंत्री ने गत वर्षो में ही कर चुकी हैं। शिल्प ग्राम में रामकथा से जुड़े प्रसंगों की प्रदर्शनी व स्टाल का निर्माण प्रस्तावित है। बताते हैं कि इस परियोजना के लिए आधा धन केंद्र व आधा राज्य सरकार देगी। प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया है पर वित्तीय स्वीकृति नहीं मिल सकी।

यह है दीदी की रेल, ममता न मेल

यह है ‘दीदी’ की रेल, न ‘ममता’ न मेल। जाने कब डिटेन हो जाए’ और न जाने कब हो जाए फेल
आरक्षण की बोगी में रेलमपेल व धक्‍का, न जाने कब सिर फूटे और माल ले जाए उचक्‍का, यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
कहीं छकावे किन्‍नर टोली कहीं डरावे खाकी,  देख मुसाफिर आंख खोल रक्षक ही बने हैं भक्षक, यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
उत्‍तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी दिशा ले जाए, यूपी में भइया बोले तो बिहारी डेरावे, बंगाल में दादा भी दादागिरी दिखावें, यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
यूपी पुलिस बदनाम है भइया, पंजाब की वर्दी भारी, आते-जाते लोगों की जेब टटोलें ये मुलाजिम सरकारी, यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
खानपान के नाम पर हो रही खूब उगाही, जहरखुरानों के आतंक से सहमें हर नर-नारी, डिब्‍बे में चना-चाय बेचते घूम रहे अपराधी। यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
आरक्षण का टिकट पर सीट की मारामारी, उठते ही सीट बिक जाए जेब करे जो भारी, पानी-खाना ऐसा मिलता जेहसे बढै बीमारी। यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल
यात्री की रक्षा नहीं, न ही नारि सुरक्षित, हर ओर दुष्‍सान मिलते हैं कैसे अबला रहें सुरक्षित। यह है दीदी की रेल, न ममता न मेल

ऐसे तो रुकने से रहीं आतंकी वारदातें

फैजाबाद, अयोध्या के अधिग्रहीत परिसर पर पांच साल पूर्व हुए फिदाइन हमले में वांछित अभियुक्त मुश्ताक अब तक पहेली बना है। जांच एजेंसियों की छानबीन में इस बात की पुष्टि हुई है कि हमले में जिन बमों व राइफलों को इस्तेमाल किया गया था उसे अलीगढ़ में रखवाने की व्यवस्था मुश्ताक ने ही की थी। वहीं राम सिंह नामक उस व्यक्ति के बारे में भी सुराग नहीं लगा जिसने अंबेडकरनगर में किराए पर कमरा लेकर आतंकियों को ठहराया था। वर्षो बाद में पुलिस अथवा खुफिया एजेंसियों की नाकामी के कारण अयोध्या की घटना से जुड़े कई राज उजागर नहीं हो सके। वाराणसी की घटना के बाद यह सवाल उठ रहे हैं कि कहीं उक्त मददगारों का इस्तेमाल आतंकी संगठनों द्वार फिर तो नहीं किया जा रहा है? पांच जुलाई 2005 को अधिग्रहीत परिसर पर आतंकी हमला किया गया था। हमले के दौरान आत्मघाती दस्ते के सभी आतंकियों को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया था। घटना में शामिल आतंकियों के मददगारों तक पहुंचने में मृत आतंकियों के मोबाइल फोन से काफी मदद मिली। उसी के जरिए घटना की साजिश में शामिल जम्मू-कश्मीर से आसिफ इकबाल उर्फ फारुख, मोहम्मद नसीम, मोहम्मद अजीज, शकील अहमद व सहारनपुर जिले से डा. इरफान को गिरफ्तार किया गया। ये सभी अभियुक्त इन दिनों नैनी जेल में निरुद्ध हैं जहां उनके विरुद्ध सुनवाई हो रही है। पुलिस की छानबीन में अलीगढ़ निवासी मुश्ताक अभी वांछित है। इसके अलावा कोड नाम वाले पांच आतंकियों दाऊद, उमर, दनदल, अदनान व कारी का नाम प्रकाश में आया है। इनमें से तीन के मृत होने की बात पुलिस मान रही है जबकि मुश्ताक व अदनान वांछित हैं। पांच साल तक चली पुलिस की विवेचना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी। हालांकि पुलिस अधिकारियों का कहना है कि विवेचना जारी है। इसी तरह 23 नवंबर 2007 को कचहरी में हुए सीरियल ब्लास्ट की घटना में आमिर नामक उस युवक का नाम प्रकाश में आया था जिसके द्वारा घटना में इस्तेमाल साइकिल लिए जाने की पुष्टि हुई थी। पुलिस या खुफिया एजेंसियां अब तक उसके बारे में भी सुराग नहीं लगा सकीं। वाराणसी में हुए ब्लास्ट के बाद खुफिया एजेंसियां इस बात को लेकर चौकन्नी हैं कि कहीं पूर्व में घटनाओं में शामिल उक्त मददगारों का फिर तो इस्तेमाल नहीं हो रहा है।