शनिवार, फ़रवरी 27, 2010
बहुत याद आती है बचपन की होली
बहुत याद आती है बचपन की होली।वे अल्हड़पन, हंसी-ठिठोली। रंगों की मस्ती और शरारत। कैसे भूलेगी बचपन की होली। ग्रामीण परिवेश में पलने-बढ़ने के कारण गांवों में होने वाले त्योहारों के बारे में करीबी जानकारी है। मेरे बचपन में होली का उल्लास करीब महीने भर पहले शुरू हो जाता था। नतीजतन मार्च के पहले यानि जनवरी, फरवरी में होनी वाली शादियां और गौने में विदाई के वक्त रंग पड़ने लगता था। रिश्तेदारियों में जाने से पूर्व लोग मानसिक रूप से होली खेलने को तैयार रहते थे। बसंत पंचमी के दिन रेड़ गड़ने के बाद से होलिका की तैयारी शुरू हो जाती थी। इसी शाम कबीर बोलने का सिलसिला चलता था। इसमें अपने रिश्तों के हिसाब से खूब गालियों की बौछार होती थी। कभी-कभार इसको लेकर शिकवा-शिकायतें भी होती थीं लेकिन गांव के मानिन्द और बुजर्गु त्योहार का वास्ता देकर बात आगे बढ़ने के बजाय पटाक्षेप कर देते थे। होली के पखवारे भर पूर्व गांवों में कनई फेंकने (गीली मिटटी ) का चलन था। पड़ोसी गांवों से इस बात को लेकर होड़ लग जाती थी कि इस बार किसकी होलिका कितनी ऊंची होगी और ज्यादा देर तक किसकी होलिका जलेगी। इसी के मददेनजर होलिका दहन की पूर्व संध्या पर युवा टोली गांव में घर-घर घूमकर लकडी और उपले इकटठा करती थी। इसके बाद भी कसर दिखने पर देर शाम शुरू होता था लकड़ी चुराने और खेतों में रखे छप्पर उठाने का सिलसिला। नलकूपों पर छांव के लिए रखे जिन छप्परों की रखवाली नहीं होती थी वह तो रात में गायब हो जाता था। कभी-कभी इसकी भरपाई भी युवकों के परिवारीजनों को करनी पड़ती थी। गांवों में आज के डेढ़-दो दशक पूर्व एका और भाईचारा की इससे बढि़या मिसाल कुछ हो ही नहीं सकता। आज का दौर होता तो गांवों के कितने युवकों के विरुद्ध आगजनी और चोरी का मुकदमा कायम हो जाता। होली के दिन तो कुछ कहना ही नहीं था। सुबह से की बच्चों की टोली रंग लेकर घर-घर धावा बोलने लगती। चाची, काकी, बुआ और भाभी होलियारों के निशाने पर होतीं। रंग डालने के चक्कर में कितनों के पकवान खराब हो जाते और कितनों के घरों के कीमती सामान लेकिन होली के नाम पर हर शरारत अनदेखी हो जाती। दूसरी बेला यानि शाम के समय अबीर लगाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। इस दौरान लोग उनके घरों पर भी जाने से गुरेज नहीं करते जिनसे खान-पान और बोली-बानी बंद रहता था। मतलब सारे रंज भुलाकर गले मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। यह सिलसिला गांवों से दूसरे गांवों और क्षेत्रों तक जारी रहता था। वहीं एक स्थल पर बैठकर गंवई टीम फाग और गीत-संगीत से माहौल को और भी रंगीन बना देती थी। गांवों में प्रजा को पकवान और बख्शीश देने का चलन भी है जो अब भी बरकरार है। आज की होली पर तमाम प्रतिबंधों की मार है। एक तो महंगाई जेब ढीली कर रही है तो दूसरी ओर बढ़ती कटुता के कारण सगे-सम्बन्धी भी अपनों से मिलने से कतराते हैं। बच्चों की जरा सी शरारत उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकती है। इसलिए गांवों में त्योहारों का रंग अब फीका पड़ने लगा है। रिश्तों पर सियासत भारी पड़ रही है। दांव-पेंच के चक्कर में सब कुछ उलटा-पुलटा हो गया है।
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