गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

...हम लोग रोजाना मूर्ख बन रहे

सुबह-सुबह हमारे ग्रामीण सहयोगी का फोन आया। मोबाइल की स्‍क्रीन पर उनका नाम दिखते ही लगा कुछ अनहोनी जरूर हुई। इसी आशंका के साथ फोन रिसीव किया तो ग्रामीण रिपोर्टर ने बताया कि अमुख जगह एक्‍सीडेंट हो गया है चार-पांच लोगों के मरने की खबर है। इसी सि‍लसिले में मैं मौके तक जा रहा हूं। उनका फोन कटनें के बाद मेरे मन में यह सवाल उपजा कि कहीं किसी ने हमारे सहयोगी को अप्रैलफूल तो नहीं बना दिया ? करीब 15 मिनट बाद फिर फोन आया तो रिपोटर्र गुस्‍साया हुआ था उसने बोला कि भाई साहब किसी ने मजाक कर दिया। वहीं हमारे पड़ोस में रहने वाली पूजा से किसी ने कहा कि उसके घर मेहमान आये हैं वह बाहर दरवाजे की ओर दौड़ी तो वहां कोई नहीं था। इतना ही नहीं हम लोगों के फोन पर यह संदेश आने लगे कि प़ुलिस पकड़ गई। इस मैसेज को जिसने ध्‍यान से नहीं पढ़ा वह सरपट उस दिशा की ओर लपका जहां का वाक्‍या बताया गया था। हद तो तब हो गई जब डाग साहब के मरने और डीओजी साहब के दौरे जैसे शब्‍दों का जाल बनाकर लोगों को मूर्ख बनाया गया। जो शब्‍दों पर गौर नहीं कर सका वह सचमुच में किसी डाक्‍टर के मरने की दशा में दुख जताने से गुरेज नहीं किया। दिन भर ऐसे ही संदेशों, सूचनाओं और अफवाहों का बाजार गर्म रहा। इससे काफी लोग परेशान हुए तो कइयों के लिए मजाक मनोरंजन साबित हुआ। अब सवाल उठता है कि हम ऐसा क्‍यों और किसके लिए करते हैं क्‍या सभ्‍य समाज के लोगों को मूर्ख बनाने के लिए एक अप्रैल जैसे खास दिन का इंतजार रहता है वास्‍तव में हम लोग रोजाना मूर्ख बन रहे हैं कभी नेताओं के कोरे भाषण में फंसकर तो कभी निजस्‍वार्थ के फेर में। मालिक नौकर को मूर्ख बना रहा तो कहीं मातहत अधिकारियों को टोपी पहना रहे हैं। इसलिए हमें मूर्ख दिवस मनाने के बजाय आये दिन अप्रैलफूल बनने जैसे वाक्‍यों से बचने की कोशिश करनी चाहिए इसके लिए हर पल अधिकारों और कर्तव्‍यों के प्रति सजग रहने की जरूरत है। मूर्ख दिवस के संदर्भ में एक और प्रसंग याद आता है। हम लोगों के बचपन में महीने-दो महीने के भीतर गांव में किसी न किसी के घर यह संदेश आता था कि उनका प्रिय रिश्‍तेदार मर गया। वह रिश्‍तेदार मामा, फूफा, नाना, चाचा, दामाद आदि हो सकता था। यह अशुभ संदेश मिलने के बाद परिवार में रोना-पिटना मच जाता था। यहां यह भी बताना समीचीन होगा कि तब फोन का इतना प्रचलन नहीं था इसलिए संदेश लेकर कोई प्रजा नाई-कहांर आता था। कुछ देर तक महौल शोकमय हो जाने के बाद संदेश वाहक यह बताता था कि अब चुप हो जाइये कोई मरा नहीं बल्कि कौव्‍वा बैठ गया था। कौव्‍वा बैठने का अर्थ उस समय लगाया जाता था कि परिवार में कोई अनहोनी होनी वाली है जिससे बचने के लिए किसी के मृत होने की सूचना भेजी जाती थी। ऐसा लोग मानते थे कि शोक संदेश रिश्‍तेदारियों में जाने से यह विपदा टल जायेगी। अब वह दौर तो लगभग खत्‍म हो गया जिसकी जगह मूर्ख दिवस ने ले ली

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